उठा कर कलम दवात
बनने जब मैं कवि चला
एक लाइन भी लिखी नहीं गयी
सुबह से अब तक दिन ढला
निराशा का आलम छा गया
तब मैं बहुत घबरा गया
सोचा शायद मुझ में
कवि बनने की योग्यता ही नहीं है
जो अब तक एक पंक्ति
भी नहीं लिखी गयी है
ऐसे तो एक कविता बनाने में
पूरा साल लग जायेगा
क्या मेरा किताब का सपना
अधूरा ही रह जायेगा
मैंने तो उसका शीर्षक
भी सोच लिया था
जादू का पिटारा नामक
शीर्षक उसे दिया था
परन्तु अब तो मुझे
ऐसा लग रहा था
कि यह जादू का पिटारा
खाली ही रह जायेगा
धूल ही जमेगी इस पर
खाक में यह मिल जायेगा
मैं परेशान हैरान हो
अपने पर रो रहा था
आज मुझे अपने पर ही
व्यंग आ रहा था
कहाँ गया वो हुनर
जिस पर में इतरा रहा था
मेरे जैसे गुडमार कवि का
होना भी चाहिए यही हाल
कुछ भी शुरू करने से पहले
अपने से तुम करो सवाल
तुम इसके लायक भी हो
या यूँ ही दे रहे हो मिसाल
नहीं तो यारों मेरी तरह
तुम भी पछताओगे
कोरे कागज को ध्यान से
बस देखते रह जाओगे