ये “हवा” तो कभी कभी,
सौत सी मुझ को लगती है,
मन के खयालो की सलाखों में,
आहे मुझ को डसती है,
क्यों होता है ऐसा,
समझ नहीं कुछ पता हूँ,
समझ के दायरे में जाकर,
फिर वही लौट आता हूँ,
हवा के सौतेले पन का कारण,
उस का स्पर्श गुण है,
मुझ में शायद यही अवगुण है,
की मैं स्पर्श गुण नहीं रखता……,
हवा न चाहते हुए भी,
स्पर्श कर जाती है उसका,
मन में अन्त्र्दुन्ध उठता है,
एक टीस सी उठती है,
जब महसूस करता हूँ हवा का छूना,
आता है मुझ को रोना…..,
मैं उसका स्पर्श नहीं कर पाता हूँ,
राह सामने होने पर भी भटक जाता हूँ,
मेरी अंतिम तम्मना बस यही है,
कि मुझ में स्पर्श गुण आ जाए,
तो शायद मेरी जिंदगी को आधार मिल सके…..!
मेरा मन मेरी इच्छाए को आकार मिले……..!!!